संवाद



“गाँधी जी का एतिहासिक भाषणः बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (फरवरी 6, 1916)”


9जनवरी,1915 को गाँधीजी दक्षिण अफ्रीका से इंग्लैंड होते हुए भारत पहुँचे। प्रो0 गोखले की सलाह पर उन्होंने तकरीबन एक वर्ष तक कोई बड़ा सार्वजनिक भाषण नहीं दिया। 6 फरवरी,1916 को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में,जहां वाइसरॉय हार्डिंग एवं बहुत सारे राजा महाराजा आए हुए थे, गाँधीजी ने भारत आने के बाद पहली बार एक बड़े सार्वजनिक समारोह में अपनी बात खुल कर रखी। ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि पूरे भारतवर्ष का ध्यान इस समय इस समारोह पर केंद्रित रहा होगा और इस वजह से गांधीजी के इस बेबाक भाषण की खबर देश के कोने-कोने तक पहुँच गई होगी। पहली बार किसी ‘हिंदू’ विश्वविद्यालय की स्थापना देश में हो रही थी; वाइसरॉय से लेकर बड़ी रियासतों के राजा-महाराजा वहां पधारे थे; इसलिए जरूर ही समाचार पत्रों के प्रतिनिधि भी वहां बड़ी संख्या में होंगे। गांधीजी का यह भाषण इतना विलक्षण था कि निश्चित ही न सिर्फ वहां बैठे लोगों बल्कि पूरे देश को चैंका दिया होगा।
हमें यह याद रखना होगा कि 1857 की क्रांति एवं 1884-93 के बीच हुए गोहत्या के विरुद्ध देशव्यापी आंदोलन, जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, से एक बार तो अंग्रेजी राज बुरी तरह हिल गया होगा, पर उसके बाद धीरे-धीरे अंग्रेजी हुकूमत ने सख्ती से, अपनी जकड़ मजबूत करनी शुरू की। बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक तक आते-आते अंग्रेजो ने अपनी ताकत काफी बढ़ा ली थी और उन्हें यह विश्वास होने लगा था कि अब वे लंबे समय यहां राज करने वाले हैं। इसी विश्वास के तहत 1911 में जॅार्ज पंचम का भारत में आगमन हुआ; दिल्ली दरबार लगा; संभवतः अंग्रेज यह मानने लगे थे कि उन्हें चुनौती देने वाली कोई मजबूत शक्ति अब देश में बची नहीं है। पढ़े-लिखे भारतीय अंग्रेजों की नकल करने में अपनी समस्त ऊर्जा लगाने में लगे थे। ऐसे में भारत संभवतः काफी दीन-हीन हालत में रहा होगा।
गाँधीजी का ऐसे हालात में भारत में आगमन हुआ। अंग्रेजों ने यहां जो शोषण किया संभवतः गाँधीजी उससे इतना परेशान नहीं थे जितना कि इस बात से कि यहाँ के साधारण लोग अंग्रेजों से भयभीत, डरे-सहमे हैं और जो पढ़ा-लिखा वर्ग है, वह बुरी तरह से अंग्रेजों से प्रभावित है और उनकी नकल करने में सारी शक्ति लगा रहा है। इस हालात का अंदाजा गाँधीजी संभवतः दक्षिण अफ्रीका के जमाने से ही लगातार लगाते आ रहे थे और भारत आने के बाद जो एक वर्ष देश का भ्रमण किया उससे उनका यह मूल्यांकन और पुख्ता होता चला गया। उनके पहले कांग्रेस की हालत भी कुछ ऐसी ही थी। उन्होंने ठानी होगी की सबसे जरूरी काम है देशवासियों में शक्ति का संचार करना।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन सत्र में दिया गया महात्मा गाँधी का यह भाषण उस उक्त संदर्भ को ध्यान में रखकर पढ़ने से हमें इसके असर का कुछ अंदाजा हो सकता है और गाँधीजी की बेबाक हिम्मत का एहसास होता है। उस समय के गिरे-पड़े भारत में एक भारतीय, अंग्रेजी वाइसरॉय को दो टूक बातें कहने की हिम्मत रखता है और वाइसरॉय उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। एक मामूली-सा दिखने वाला भारतीय, अंग्रेजों के सरगना को भरी सभा में खरी-खरी सुना दे, ऐसी तो किसी ने उस समय कल्पना भी नहीं की होगी। उस समय देश में विप्लवी तो जरूर थे, जो अंग्रेजों को बन्दूक से या बम से उड़ाने की हिम्मत रखते थे, पर भरी सभा में पूरे आत्मविश्वास के साथ स्पष्टता, दृढ़ता और तार्किकता के साथ अपनी बात कहने वाला देश में अन्य कोई नहीं था। गाँधीजी की बात इतनी तीखी थी कि भाषण के बीच में ही ऐनी बेसेंट,जो मंच पर बैठी थी, ने गांधीजी को रोकना चाहा पर चूंकि वहां बैठे विद्यार्थी चाहते थे कि गाँधी बोलें इसलिए वे भाषण के बीच में ही उठकर चल दीं। उस समय की भारत की स्थिति और इस भाषण का भारत के साधारण लोगों पर क्या असर हुआ होगा, हम इसकी सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं।………………. सम्पादक

 

01दोस्तों, यहां आते हुए मुझे रास्ते में बहुत देर लग गई। मैं इसके लिए क्षमा-याचना करता हूँ आप मुझे से खुशी से माफ भी कर देंगे क्योंकि इस देरी के लिए न मैं जिम्मेदार हूँ न कोई और आदमी,(हँसी); सच कहो मैं तो पिजंरे का जानवर हूँ और मेरी देखरेख करने वाले लोग अत्यधिक ममता के कारण जीवन के एक महत्वपूर्ण पहलू अर्थात् शुद्ध संयोग की बात को भूल जाते हैं। इस बार भी हम लोग, मैं, मेरे निरीक्षक और मुझे मुझे उठाकर चलने वालों को एक के बाद जिन दुर्घटनाओं का सामना करना पड़ा, उसकी पूर्व कल्पना करके तो कोई इन्तजाम नहीं किया गया था; इसलिए इतनी देर हो गई।
दोस्तों अभी-अभी जो महिला भाषण देकर बैठी हैं, उनकी अद्भुत वाक्शक्ति के प्रभाव में आकर आप लोग कृपया इस बात पर विश्वास न कर लें जो विश्वविद्यालय अभी तक पूरा बना और उठा भी नहीं है वह कोई परिपूर्ण संस्था हैं, और अभी जो विद्यार्थी यहां आये तक नहीं हैं वे शिक्षा-संपादन करके यहां से एक महान् साम्राज्य के नागरिक होकर निकल चुके हैं। मन पर ऐसी कोई छाप लेकर आप लोग यहां से न जाएं ,और जिनके सामने आज मैं बोल रहा हूँ, वे विद्यार्थी गण तो एक क्षण के लिए भी इस बात को मन में जगह न दें कि जिस आध्यत्मिकता के लिए इस देश की ख्याति है जिसमें उसका कोई सानी नहीं हैं उस आध्यत्मिकता का संदेश बातें बघार कर दिया सकता है। अगर अपका ऐसा कुछ खयाल हो तो मेहरबानी करके मेरी इस बात पर भरोसा कीजिए कि आपका वह खयाल गलत है। मुझे आशा है कि किसी-न-किसी दिन भारत संसार को यह संदेश देगा; किन्तु केवल वचनों के द्वारा वह संदेश कभी नहीं दिया जा सकेगा। मैं भाषणों और तकरीरों से ऊब गया हूँ। अलबत्ता पिछले दो दिनों में यहां जो भाषण दिये गये, उन्हें मैं इस तरह की तकरीरों से अलग मानता हूँ; क्योंकि वे जरूरी थे। फिर भी, मैं यह कहने की धृष्टता कर रहा हूँ कि हम भाषण देने कि कला के लगभग शिखर पर जा पहुँचे हैं और अब आयोजनो को देख लेना और भाषणों को सुन लेना ही पर्याप्त नहीं माना जाना चहिए; अब हमारे मनों में स्फुरण होना चहिए और हाथ-पाँव हिलना चहिए। पिछले दो दिनों में हमें बताया गया कि अगर भारतीय जीवन की सादगी कायम रखनी है तो हमें अपने हाथ-पाँव और मन की गति में सामंजस्य लाना आवश्य है। वैसे, यह भूमिका हुई। मैं कहना यही चाहता हूँ कि मुझे आज इस पवित्र नगर में इस महान् विद्यापीठ के प्रांगण में अपने ही देशवसियों से एक विदेशी भाषा में बोलना पड़ रहा हैं। यह बड़ी अप्रतिष्ठा और शर्म की बात है। पिछले दो दिनों में यहाँ जो भाषण दिये गये यदि उनमें लोगों की परीक्षा ली जाये और परीक्षक मैं होंऊँ तो निश्चित है कि ज्यादातर लोग फेल हो जायें। क्यों? इसलिए की इन व्याख्यानों ने उनके हृदय नहीं छुए। मैं गत दिस्मबर में राष्ट्रीय महासभा के अधिवेशन में मौजूद था। वहां बहुत अधिक तादाद में लोग इकट्ठा हुए थे। आपको ताज्जुब होगा की बम्बई के तमाम श्रोता केवल उन भाषणों से प्रभावित हुए जो हिन्दी में दिये गये थे। ध्यान दीजिए, यह बम्बई की बात है, बनारस की नहीं, जहाँ सभी लोग हिन्दी बोलते हैं। बम्बई प्रान्त की भाषाओं और हिन्दी में उतना फर्क नहीं जैसा अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं में हैं; और इसलिए वहाँ के श्रोता हिन्दी में बोलने वाले की बात ज्यादा आत्मीय भाव से समझ सके। मुझे आशा है कि इस विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को उनकी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने का प्रबन्ध किया जायेगा। हमारी भाषा हमारा ही प्रतिबन्ध है और इसलिए यदि आप मुझसे यहां कहें कि हमारी भाषाओं में उत्तम विचार अभिव्यक्त किये ही नहीं जा सकते तब तो हमारा संसार से उठ जाना ही अच्छा है। क्या कोई व्यक्ति स्वप्न में भी यह सोच सकता है कि अंग्रेजी भविष्य में किसी भी दिन भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती हैं? (“नहीं,नहीं’’ की आवाजें) फिर राष्ट्र के पांवो में यह बेड़ी किसलिए? जरा सोचकर देखिए कि अंग्रेजी भाषा में अंग्रेज बच्चों के साथ होड़ कराने में हमारे बच्चों पर कितना वजन पड़ता है। पूना के कुछ प्रोफेसरों से मेरी बात हुई। उन्होंने बताया कि चूंकि हर भारतीय विद्यार्थी को अंग्रेजी के मारफत ज्ञान-सम्पादन करना पड़ता है,इसलिए उसे अपने जिन्दगी के बेश-कीमती बरसों में कम-से-कम छह वर्ष अधिक जाया करने पड़ते हैं। हमारे स्कूलों और कॉलेजों से निकलने वाले विद्यार्थियो की संख्या में इस छह का गुणा कीजिए और फिर देखिये कि राष्ट्र के कितने हजार वर्ष बरबाद हो चुके हैं। हम पर आरोप लगाया जाता है कि हममें पहल करने का माद्दा नहीं है। हो भी कैसे सकता है? यदि हमें एक विदेशी भाषा पर अधिकार पाने के लिए जीवन के अमूल्य वर्ष लगा देने पड़ें तो फिर और हो क्या सकता है? और तो और हम इसमें भी सफल नहीं हो पाते। श्री हिगिनबॉटम ने श्रोताओं को जितना प्रभावित किया क्या कल और आज बोलने वालों में एक भी अन्य वक्ता उतना प्रभावित कर सका? यह उन बोलने वालों का कसूर नहीं था। सामग्री तो उनके भाषाणों में भरपूर थी; लेकिन उन भाषणों ने हमारा मन नहीं पकड़ा। कहा जाता है कि आखिरकार भारत के अंग्रेजीदाँ ही देश का नेतृत्व कर रहे हैं और वे ही राष्ट्र के लिए सब-कुछ कर रहें हैं। अगर इससे विपरीत बात होती है तो वह और भी भयानक होती; क्योंकि हमें शिक्षा के नाम पर केवल अंग्रेजी शिक्षा ही तो मिलती है। शिक्षा का कुछ-न-कुछ परिणाम तो निकलता ही है। किन्तु मान लीजिए हमने पिछले पचास वर्षो में अपनी-अपनी भाषाओं के जरिए शिक्षा पाई होती तो आज हम किस स्थिति में होते? तो आज भारत स्वतंत्र होता; तब हमारे पढ़े-लिखे लोग अपने ही देश में विदेशियों की तरह अजनबी न होते बल्कि देश के हृदय को छूनेवाली वाणी बोलते; वे गरीब-से-गरीब लोगों के बीच काम करते और पचास वर्षों की उनकी उपलब्धि पूरे देश की विरासत होती।(तालियाँ) आज तो02 हमारी अर्धंगिनियाँ भी हमारे श्रेष्ठ विचारों की भागीदार नहीं हैं। प्रो0 बसु और प्रो0 राय तथा उनके शानदार अविष्कारों को ही लीजिए। क्या ये लज्जा की बात नहीं है कि जनता का उनसे कुछ लेना-देना नहीं है।
अब हम दूसरी बात लें।
कांग्रेस ने स्वराज्य के बारे में एक प्रस्ताव पास किया है। यों तो मुझे विश्वास है कि अखिल भारतीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग अपना कर्तव्य करेंगी और कुछ-न-कुछ ठोस सुझावों के साथ सामने आयेंगी; किन्तु जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं स्पष्ट रूप से यह बात स्वीकार करना चाहता हूँ कि मुझे इस बात में उतनी दिलचस्पी नहीं है कि वे क्या कुछ कर पाती हैं, जितनी इस बात में है कि विद्यार्थी-जगत क्या करता है या जनता क्या करती है। कोई भी कागजी कार्रवाई हमें स्वराज्य नहीं दे सकती। धुआँधार भाषण हमें स्वराज्य के योग्य नहीं बना सकते। वह तो हमारा अपना आचरण है जो हमें उसके योग्य बनायेगा। (तालियाँ) सवाल यह है कि हम अपने पर किस प्रकार राज्य करना चाहते हैं? मैं आज भाषण नहीं देना चाहता, श्रव्यरूप; में सोचना चाहता हूँ। यदि आज आपको ऐसा लगे कि मैं असंयत होकर बोल रहा हूँ तो कृपया मानिए कि कोई आदमी जोर-जोर से बोलता हुआ सोच रहा है और वही आप सुन पा रहे हैं। और यदि आपको ऐसा जान पड़े कि मैं शिष्टाचार की सीमा का उल्लंघन कर रहा हूँ तो कृपया उस स्वच्छन्दता के लिए आप मुझे क्षमा करेंगे। कल शाम मैं विश्वनाथ के दर्शनों के लिय गया था। उन गलियों में चलते हुए मेरे मन में ख्याल आया कि यदि कोई अजनबी एकाएक ऊपर से इस मन्दिर पर उतर पड़े और यदि उसे हम हिन्दुओं के बारे में विचार करना पड़े तो क्या हमारे बारे में कोई छोटी राय बना लेना उसके लिए स्वाभाविक न होगा? क्या यह महान् मन्दिर हमारे अपने आचारण की ओर उँगली नहीं उठाता? मैं यह बात एक हिन्दू की तरह बड़े दर्द के साथ कर रहा हूँ। क्या यह कोई ठीक बात है कि हमारे पवित्र मन्दिर के आस-पास की गलियाँ इतनी गन्दी हों? उसके आसपास जो घर बने हुए हैं वे बे-सिलसिले और चाहे जैसे हों। गलियाँ टेढ़ी-मेढ़ी और संकरी हों। अगर हमारे मन्दिर भी कुसादगी और सफाई के नमूने न हों तो हमारा स्वराज्य कैसा होगा? चाहे खुशी से चाहे लाचारी से अंग्रेजों का बिस्तर-बोरिया बंधते ही क्या हमारे मन्दिर पवित्रता, स्वच्छता और शान्ति के धाम बन जायेंगे?
मैं कांग्रेस के अध्यक्ष से इस बात में सहमत हूँ कि स्वराज्य की बात सोचने से पहले हमें बड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी। हमारे यहाँ हर शहर के दो हिस्से होते हैं। बस्ती खास और छावनी। बस्ती को अकसर एक बदबूदार गन्दी कोठरी समझिए। यह ठीक है कि हम शहरों की जिन्दगी के आदि नहीं हैं। लेकिन जब शहरी जिन्दगी की हमें जरूरत ही है तो उसे हम लापरवाह ग्राम्य जीवन का प्रतिबिम्ब तो नहीं बना सकते। बम्बई की जिन गलियों में भारतीय रहते हैं, वहाँ राहगीर को यह धुकधुकी लगी रहती है कि कहीं कोई ऊपर की मंजिल से उन पर पीक न छोड़ दे। यह बड़ी विचारणीय परिस्थिति हैं। मैं काफी रेल-यात्रा करता हूँ। तीसरे दर्जे की यात्रा की तकलीफों पर ध्यान जाता है। किन्तु इन सभी तकलीफों की जिम्मेदारी रेलवे के अधिकारियों के ऊपर नहीं मढ़ी जा सकती। यह जनते हुए भी डिब्बे का फर्श अकसर सोने के काम में बरता जाता है, हम उस पर यहाँ-तहाँ थूकते रहते हैं। हम जरा भी नहीं सोचते कि हमें वहाँ क्या फेकना चाहिए, क्या नही; और नतीजा यह होता है कि सारा डिब्बा गंदगी का अवर्णनीय नमूना बन जाता है। जिन्हे कुछ ऊँचे दर्जे का माना जाता है, वे अपने से कम भाग्यशाली अपने भाईयों के साथ डांट-डपट का व्यवहार करते हैं। विद्यार्थी-वर्ग को भी मैंने ऐसा करता पाया है। वे भी (गरीब) सहयात्रियों के साथ (कुछ अच्छा) व्यवहार नहीं करते। वे अंग्रेजी बोल सकते हैं और नारफॅाक जाकिटें पहने होते है और वे इसलिए अधिकार जताकर डिब्बे में घुस जाते हैं और बैठने की जगह ले लेते हैं। मैनें हर अंधेरे कोने को मसाल जलाकर देखा है; और चूंकि अपने मुझे बातचीत करने की यह सुविधा दी है, मैं अपना मन आपके सामने खोल रहा हूँ। स्वराज्य की दिशा में बढ़ने के लिए हमें बिलाशक ये सारी बातें सुधारनी चाहिए। अब मैं आपको दूसरी जगह ले चलता हूँ जिन महाराजा महोदय(दरसंभा के सर रामेश्वर सिंह 1860-1929; इन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना में मालवीय जी की सहायता की थी) ने कल की हमारी बैठक की अध्यक्षता की थी,उन्होंने भारत की गरीबी की चर्चा की। दूसरे वक्ताओं ने भी इस बात पर बड़ा जोर दिया। किन्तु जिस शमियाने में वाइसरॉय द्वारा शिलान्यास सामरोह हो रहा था, वहां हमनें क्या देखा। एक ऐसा शानदार प्रदर्शन,जड़ाऊ गहनों की ऐसी प्रदर्शनी,जिसे देखकर पेरिस से आने वाले किसी जौहरी की आँखे भी चैधियां जाती। जब मैं गहनो से लदे हुए उन अमीर-उमरावों को भारत के लाखों गरीब आदमियों से मिलाता हूँ तो मुझे लगता है कि मैं इन अमीरों से कहूँ, “जब तक आप अपने जेवरात नहीं उतार देते और उन्हें गरीबों की धरोहर मान कर नहीं चलते तब तक भारत का कल्याण नहीं होता (हर्ष ध्वनि और तालियाँ) मुझे यकीन है कि साम्राट अथवा लार्ड हार्डिंग वास्तविक राजभक्ति को दिखाने के लिए किसी का गहनों के सन्दूक उलटकर सिर से पांव तक सजकर आना जरूरी नहीं समझते। अगर आप चाहे तो मैं जान की बाजी लगाकर महाराज, जॅार्ज पंचम का संदेशा आपको लाकर दे दूँ कि वह यह नहीं चाहते। भाईयों,जब मैं सुनता हूँ कि कहीं, फिर वह ब्रिटिश भारत में हो चाहे हमारे बड़े-बड़े राजा और नवाबों द्वारा शासित रजवाड़ो में, कोई बड़ा भवन उठाया जा रहा है तो मेरा मन दुखी हो जाता है और मैं सोचने लगता हूँ, “यह पैसा तो किसानों के पास से इकट्ठा दिया गया पैसा है।” हमारे 75 प्रतिशत से भी अधिक लोग किसान हैं; कल श्री हिगिनबॉटम03ने अपनी प्रवाहमयी वाणी में कहा, “ये ही वे लोग हैं जो एक के दो दाने करते हैं।” यदि हम इनके परिश्रम की सारी कमाई दूसरो को उठाकर ले जानें दें तो कैसे कहा जा सकता है कि स्वराज्य की कोई भी भावना हमारे मन में है। हमें आजादी किसान के बिना नहीं मिल सकती। आजादी वकील और डॅाक्टर या सम्पन्न जमीदारों के वश की बात नहीं है।
अब अन्त में उस बात का थोड़ा- सा विवेचना करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ, जिसने आज दो-तीन दिनों से हमारे मनों को उद्विग्न कर रखा है। श्रीमान वाइसरॉय के यहाँ के रास्तों से निकलने के समय हम सब लोग बड़ी ही चिन्ता में थे। स्थान-स्थान पर खुफिया पुलिस के लोग नियत थे। हम दंग रह गये। हमारे मन में बार-बार यह प्रश्न उठता था कि हम लोगों के प्रति इतने अविश्वास का क्या कारण है। इस प्रकार मरणान्तक दुःख भोगते हुए जीने की अपेक्षा क्या लार्ड हार्डिंग के लिए सचमुच ही मर जाना अधिक श्रेयस्कर नहीं है। परन्तु एक बलशाली सम्राट के प्रतिनिधि इस प्रकार मर भी नहीं सकते। मृतक की भांति जीना ही वे शायद जरूरी समझते होंगे। पर दूसरा प्रश्न यह है कि खुफिया पुलिस का जुआ हमारे सिर पर लादने का क्या कारण है? हम क्रुद्ध होते हों, बड़बड़ाते हों, हाथ-पैर पटकतें हों, या और जो चाहे सो करतें हों, पर फिर भी यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में अराजक दल की उत्पत्ति के कारण उतवालेपन का नशा है। मैं खुद भी अराजक ही हूँ; पर दूसरे वर्ग का। हमारे यहाँ अराजकों का एक वर्ग है जिससे यदि मुझे मिलने का अवसर मिले तो मैं उनसे स्पष्ट कह दूगाँ कि “भाइयों! यदि भारत को अपने विजेताओं पर विजय प्राप्त करनी हो तो अपकी अराजकता के लिए यहाँ जगह नहीं है।” यह भीरुता का लक्षण है। यदि आपका ईश्वर पर विश्वास हो और यदि आप उसका भय मानते हों तो फिर आपको किसी से डरने का कोई कारण नहीं है; फिर चाहे वह राजा-महाराजा हों, वाइसरॉय हों, खुफिया पुलिस हों अथवा स्वंय सम्राट हों। अराजकों के स्वदेश प्रेम का मैं बड़ा आदर करता हूँ। पर मैं उनसे पूछता हूँ कि क्या किसी की जान लेना प्रतिष्ठा का कार्य है? क्या छुरे से हत्या करने के फलस्वरुप जो मृत्युदण्ड प्राप्त होता है, उसे किसी भी प्रकार गौरवपूर्ण माना जा सकता है? मैं कहता हूँ ’नहीं’। कोई धर्मग्रन्थ ऐसे उपाय का अवलम्बन करने की अनुमति नहीं देता।
यदि मुझे इस बात का विश्वास हो जाए कि अंग्रेजों के रहते हुए इस देश का कदापि उद्धार न होगा – उन्हे यहाँ से निकाल ही देना चाहिए – तो उनसे अपना बोरिया-बिस्तर समेट कर यहाँ से चलते होने की प्रार्थना करने में मैं कभी आगा-पीछा न करूंगा और मुझे विश्वास है कि अपनी इस दृढ़ धारणा के समर्थन में मैं मरने को भी तैयार रहूंगा; ऐसा मरण ही मेरी सम्मति में प्रतिष्ठा का मरण है। बम फेंकने वाला गुप्त रूप से षड्यन्त्र करता है। वह बाहर निकलने से डरता रहता है और पकड़े जाने पर अपने अयोग्य और अतिरिक्त उत्साह का प्रायश्चित भोगता है। ये लोग कहते हैं यदि हम लगे ऐसी कार्रवाइयाँ न करते, यदि हमारे कुछ साथी बहुतों को बम का निशाना न बनाते तो बंगभंग के सम्बन्ध में………। (इस स्थान पर श्रीमति बेसेंट ने गांधीजी से भाषण शीघ्र समाप्त करने को कहा) मि0 लायन्स की अध्यक्षता में बंगाल में भी मैनें यही बात कही थी। मेरा ख्याल है कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ वह बिल्कुल ठीक है। मुझे अपना भाषण बन्द करने को कहा जाएगा तो मैं बन्द कर दूंगा। (अध्यक्ष को संबोन्धित कर) महाराज, मैं आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। यदि आपकी समझ में मेरी इन बातों से देश और साम्राज्य को हानि पहुँच रही है तो मुझे अवश्य चुप हो जाना चाहिए (कहिए,कहिए का शोर; अध्यक्ष ने गांधीजी से अपना मतलब साफ तौर पर बतलाने को कहा) मैं अपना मतलब स्पष्ट करता हूँ। मैं सिर्फ (फिर गड़बड़ ) मित्रो, इस गड़बड़ से आप रूष्ट न हों। श्रीमति बेसेंट को मेरा चुप हो जाना उचित जान पड़ता है। इसका कारण यह है कि भारत पर उनका बहुत अधिक प्रेम है और वे समझती हैं कि युवको के सामने इस प्रकार की स्पष्ट बातें कहकर मैं अनुचित काम कर रहा हूँ पर यदि ऐसा हो तो भी मेरा कहना है कि मुझे भारत को उस अविश्वास से मुक्त करना है जो राजा और प्रजा, सभी के मन में उत्पन्न हो गया है। यदि अपने साध्य को प्राप्त करना हो तो परस्पर की प्रीती तथा विश्वास पर स्थापित साम्राज्य से ही हमारा काम चलेगा और अपने-अपने घरों में बैठे-बैठे दायित्वहीन ढंग से यही बातें कहने की अपेक्षा क्या इस विद्यालय के प्रांगण में खड़े होकर उन्हें खुले तौर पर कहना अधिक अच्छा नहीं है? मेरा तो ख्याल है, इन बातों को स्पष्टता से कहना ही अधिक कहना अच्छी बात है। पहले भी मैनें ऐसा ही किया है और उसका परिणाम बड़ा ही उत्तम हुआ है। मैं यह भी जनता हूँ कि आज ऐसी कोई बात नहीं है जिसकी विद्यार्थियों में चर्चा न होती हो या जिसे वो न जानते हो। इसलिए मैनें यह आत्मनिरीक्षण आरम्भ किया है। अपने देश का नाम मुझे बड़ा प्यारा है। इसी से मैनें आप04 लोगों के साथ विचार-विनिमय कि इतनी चेष्टा की है और आप लोगों से मेरी यह नम्रतापूर्वक प्रार्थना है कि अराजकता को भारत में बिल्कुल स्थान न मिलने दीजिए। राज्य कर्ताओं से आपको जो कुछ कहना हो उसे खुलकर साफ शब्दों में कह दीजिए, और यदि आपका कथन उन्हे बुरा लगे तो प्रणामस्वरूप जो कष्ट मिले, उन्हे भोगने में तैयार रहिए। आप उन्हें गालियाँ न दीजिए। जिस सिविल सर्विस पर निन्दा की बेहद बौछार की जाती है, एक बार उसके एक अधिकारी से मुझे वार्तालाप का अवसर मिला। तथापि उसकी बातचीत का ढंग प्रशंसनीय था। उसने पूछा – क्या आपका भी ऐसा ख्याल है कि हम सभी सिविल-सर्विस वाले बुरे होते हैं और जिन लोगों पर शासन करने के लिए हम यहाँ आते हैं, उन पर केवल हम अत्याचार ही करना चाहते हैं? मैने कहा- “नहीं, मैं ऐसा नहीं मानता।” इस पर उसने कहा कि “तो फिर जब कभी आपको मौका मिले आप हम अभागे सिविल-सर्वेंट के पक्ष में लोगों के सामने दो शब्द कहने की कृपा करें।” वे दो शब्द मैं यहाँ कहने वाला हूँ। इंडियन सिविल-सर्विस के बहुत से लोग निःसंदेह उद्धत, अत्याचार-प्रिय और अविवेकी होते है। इसी तरह के और कितने ही विश्लेषण किये जा सकते हैं। यह सब कुछ मुझे स्वीकार है। यही नहीं, मैं यह भी जानता हूँ कि कुछ वर्षो तक हमारे देश में रहकर वे और भी ओछी मनोवृत्ति के बन जाते है पर इससे क्या सूचित होता है? यहाँ आने से पहले यदि वे सभ्य और सत्पुरूष थे, पर यहाँ आकर यदि वे नीति-भ्रष्ट हो गए हों तो क्या इसको हमारे ही चरित्र का प्रतिबिम्ब नहीं कहना चाहिए? (नहीं,नहीं ) आप लोग खुद ही विचार करें कि एक मनुष्य जो कल तक भला आदमी था, मेरे साथ रहने में खराब हो जाऐ तो उसके इस अधःपतन के लिऐ कौन उत्तरदायी होगा? वह या मैं? भारत में आने पर खुशामद की जो हवा उन्हें चारों और से घेर लेती है, वही उनके नीतिच्युत होने का कारण है। ऐसी हालत में कोई भी व्यक्ति नीतिच्युत हो सकता है कभी-कभी अपने दोष स्वीकार करना भी अच्छा होता है।
यदि किसी दिन हमें स्वराज्य मिलेगा तो वह अपने ही पुरुषार्थ से मिलेगा। वह दान के रूप में कदापि नहीं मिलने का। ब्रिटिश-साम्राज्य के इतिहास पर दृष्टिपात कीजिए। ब्रिटिश-साम्राज्य चाहे जितना स्वतंत्रता प्रेमी हों, फिर भी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए स्वंय उद्योग न करने वालो को वह कभी स्वतंत्रता देने वाला नहीं है। आप चाहें तो बोअर-युद्ध से कुछ शिक्षा ले सकते हैं। कुछ ही वर्ष पहल जो बोअर लोग साम्राज्य के शत्रु थे, वहीं अब उसके मित्र हैं
(इस समय फिर गड़बड़ शुरू हुइ और श्रीमति बेसेंट उठकर चल दी। उनके साथ और भी कई बड़े-बड़े लोग उठकर चलते बने। और व्याख्यान का अन्त यहाँ हो गया।)
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय,खंड 13,पृष्ठ 212-218

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