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Picture1सवाल है कि क्या इसे लागू करने से भारतीय लोकतंत्र में कोई गुणात्मक बदलाव होने की संभावना है? क्या न्यायालय ने जनता को सच में ‘राइट टू रिजेक्ट’ दिया है? ‘राइट टू रिजेक्ट’ का अर्थ तथा इसकी मांग का इतिहास क्या है?

गत दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों या बैलट पेपर में एक अतिरिक्त कॉलम ‘उपर्युक्त में से कोई नहीं’ (नन ऑफ दि एबव या नोटा) जोड़ने का निर्देश दिया। यह फैसला मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल की ओर से सन् 2004 में दायर याचिका पर दिया गया। चुनाव आयोग ने भी इसे अगले महीने होने वाले विधानसभा चुनावों में लागू करने का फैसला कर लिया है।
सवाल है कि क्या इसे लागू करने से भारतीय लोकतंत्र में कोई गुणात्मक बदलाव होने की संभावना है? क्या न्यायालय ने जनता को सच में ‘राइट टू रिजेक्ट’ दिया है? ‘राइट टू रिजेक्ट’ का अर्थ तथा इसकी मांग का इतिहास क्या है?
यह मुद्दा बहुत पुराना है। सन् 1970 के पहले से ही जयप्रकाश नारायण ने ‘राइट टू रिकाल’ एवं ‘राइट टू रिजेक्ट’ को एक साथ उठाना शुरू किया था। वे जनसभाओं मे लगातार इन मुद्दों पर बोलते रहे। इमरजंसी के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी और वह लंबे समय तक नहीं चल पाई। इसके बाद जब चुनाव का वक्त आया तब भी कुछ संगठनों ने इस मुद्दे को लेकर गांव-गांव में अभियान चलाया था और कुछ संख्या में फार्म 49 (ओ) भरकर जनता ने सभी प्रत्याशियों को नापसंद करने का मत व्यक्त किया था। कुछ जगहों पर जन संगठनों ने सभी प्रत्याशियों को नकारने के लिए अलग वैकल्पिक बूथ तक लगाया था। 1980 के बाद भी चुनावों के दौरान छिटपुट चुनाव बहिष्कार की खबरें तो आती ही रहीं लेकिन सामान्य तौर पर यह मुद्दा शिथिल पड़ा 02रहा। पुनः 1996 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले आजादी बचाओ आंदोलन ने इस मुद्दे को नये सिरे से उठाया और साफ-साफ शब्दों में चुनाव आयोग से यह मांग शुरू की कि बैलेट पेपर (अब ईवीएम) में एक अतिरिक्त कॉलम ‘इनमें से कोई नहीं’ (नन ऑफ दीज) जोड़ा जाए। आजादी बचाओ आंदोलन ने इस बात पर विशेष जोर देना शुरू किया कि ‘इनमें से कोई नहीं’ के पक्ष में पड़े मतों की अलग से गणना कराई जाए और यदि वह विजयी प्रत्याशी के मत से ज्यादा है तो उस क्षेत्र का चुनाव रद्द किया जाए और सारे प्रत्याशी बदलकर नये सिरे से चुनाव कराया जाए। आजादी बचाओ आंदोलन ने इस मुद्दे पर 1996 के चुनावों के पहले कुछ शहरों में जबर्दस्त प्रचार अभियान अपने नुक्कड़ सभाओं, हस्ताक्षर अभियान एवं पत्र-पत्रिकाओं में लेख, बयान, समाचार आदि के माध्यम से चलाया। पुनः 1998 व 1999 के लोकसभा चुनावों के पहले आजादी बचाओ आंदोलन ने इस मुद्दे पर गंभीरता से अभियान चलाया था। 1999 तक आते-आते देश की कुछ अन्य संस्थाओं ने यह मांग उठाना शुरू कर दिया था। वर्ष 1999 में विधि आयोग ने भी अपनी 170वीं रिपोर्ट में इस मांग के समर्थन में सिफारिश की थी। बाद के दिनों में भिलाई के डॉ. रमाकांत दानी जैसे कई लोग व्यक्तिगत स्तर पर इस अभियान को सक्रियता से चलाते रहे। डॉ. दानी तो ‘राइट टू रिजेक्ट’ के पर्याय बन चुके थे। सन् 2000 के बाद भारतीय चुनाव आयोग ने इस मुद्दे पर कई बार प्रस्ताव बनाकर भारत सरकार को स्वीकृति के लिए भेजा लेकिन सरकार इसे ठंडे बस्ते में डालती रही। सन् 2004 में पीयूसीएल ने इस मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी। पूर्व उपराष्ट्रपति डॉ. कृष्णकांत, पूर्व चुनाव आयुक्त टी.एस. कृष्णमूर्ति एवं संविधानविद् व पूर्व लोकसभा महासचिव सुभाष कश्यप जैसे कई महत्वपूर्ण लोग भी इस मांग के समर्थन में बोल चुके थे। डॉ. कृष्णकांत ने तो आंध्र प्रदेश का राज्यपाल रहते हुए इस मांग के समर्थन में अभियान तक चलाया था।
ध्यान रहे कि सर्वोच्च न्यायालय ने वोटिंग मशीन में ‘उपर्युक्त में से कोई नहीं’ का विकल्प देने को तो मान लिया है और इसपर अपना दिशानिर्देश भी जारी कर दिया है लेकिन इन वोटों की गिनती करके विजयी प्रत्याशी के मतों से इसकी तुलना करने एवं उसके आगे की मांग पर अभी तस्वीर साफ नहीं है। इस तरह से देखा जाए तो यह मांग अभी अधूरे तौर पर ही पूरी हुई है। मांग का मुख्य और महत्वपूर्ण हिस्सा अभी पूरा होना शेष है। अभी सर्वोच्च न्यायालय की ओर से जो दिया गया है वह ‘राइट टू रिजेक्ट’ (खारिज करने का अधिकार) नहीं बल्कि ‘राइट ऑफ निगेटिव वोटिंग’ (नकारात्मक मत का अधिकार) है। इसे ‘राइट ऑफ इनवैलिड वोटिंग’ या ‘राइट ऑफ नो वोटिंग’ कहना ज्यादा बेहतर होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले के माध्यम से नकारात्मक मतों को मान्यता या स्वीकृति प्रदान की है। इन्हें चुनाव व्यवस्था के अंतर्गत एक पहचान दे दी है ताकि नकारात्मक मत भी अब विधिसम्मत तरीके से व्यक्त हो सकें। उदाहरण के तौर पर किसी निर्वाचन क्षेत्र में यदि पचास वोट पड़े। पचास में उनचास वोट ‘उपर्युक्त में से कोई नहीं’ के खाने में पड़े। मात्र एक वोट किसी प्रत्याशी को पड़ा तो एक वोट पाने वाला प्रत्याशी विजयी हो जाएगा। वह ‘रिजेक्ट’ नहीं होगा। दुर्भाग्य से पीयूसीएल ने अपनी याचिका में इतना ही मांगा भी था। यही नहीं, विधि आयोग की सिफारिश एवं चुनाव आयोग के प्रस्ताव में भी मुद्दा यहीं तक सीमित था।
बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने भारत के मरणासन्न लोकतंत्र को ऑक्सीजन दे दिया है। इसमें कोई शक नहीं कि ऐसी व्यवस्था हो जाने से भारतीय लोकतंत्र एवं चुनाव व्यवस्था का दायरा कुछ और ज्यादा व्यापक, कुछ और ज्यादा लोकतांत्रिक हो गया है। इससे भारत के लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ी है और जनता का या मतदाता का अधिकार क्षेत्र समृद्ध हुआ है। इससे मतदान का प्रतिशत भी थोड़ा बहुत बढ़ सकता है। सर्वोच्च न्यायालय को उम्मीद है कि जो लोग किसी भी प्रत्याशी को पसंद नहीं करने के कारण वोट देने नहीं जाते थे वे इस व्यवस्था के लागू होने के बाद वोट देने के लिए घर से निकलेंगे। यद्यपि इसकी संभावना कम ही है। भारतीय जनमानस की चुनाव के प्रति उदासीनता इतने ही मात्र से ख़त्म नहीं होनेवाली। थोड़े ही दिनों में उसे यह समझ में तो आ ही जाएगा कि इस मत का आखिर मतलब क्या है जिसकी गिनती भी होनी सुनिश्चित न हो। हां, इससे मतदाता थोड़ा और सशक्त जरूर हुआ है।
इस नई व्यवस्था से वोट का प्रतिशत बढ़े या न बढ़े मगर उम्मीदवारों के चयन में जनता की एक परोक्ष भूमिका जरूर सुनिश्चित हो गई है। इससे साफ-सुथरे उम्मीदवारों के चयन को बढ़ावा मिलेगा। वैसे तो अपनी चुनावी व्यवस्था में लोकतंत्र सिर के बल खड़ा है। भारतीय लोकतंत्र पार्टी के हाथों गिरवी है और उम्मीदवारों के चयन में यहां जनता की कोई भूमिका नहीं होती। पार्टी के आलाकमान का निर्णय ही सर्वोपरि होता है। चुनाव प्रणाली में यह नया विकल्प राजनीतिक पार्टियों को कुछ हद तक दूसरी दिशा में भी सोचने को मजबूर करेगा।
001चुनाव व्यवस्था ने इस नई व्यवस्था (उपर्युक्त में से कोई नहीं) के बाद चुनाव बहिष्कार को भी अपनी परिधि में शामिल कर लिया है या यूं कहें कि अपने भीतर से चुनाव बहिष्कार का रास्ता खोल दिया है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसके अंतर्गत व्यवस्था के भीतर से व्यवस्था के विरोध का रास्ता भी खुलता है। अब चुनाव व्यवस्था के दायरे में वयवस्था विरोधी भी आ सकेंगे। ऊपर से व्यवस्था विरोध या व्यवस्था के बहिष्कार का यह एक व्यवस्थाजन्य मार्ग दिखता तो जरूर है, मगर बहिष्कार या व्यवस्था विरोध का यह मार्ग जनता के लिए नख-दंत विहीन है। यह जनता को कहीं न कहीं और ज्यादा बेबस व लाचार बनाने वाला है। कहने की जरूरत नहीं कि जाने-अनजाने यह वर्तमान व्यवस्था को और ज्यादा मजबूत, सशक्त अथवा ‘फुलप्रूफ’ बनाने वाली व्यवस्था है। यह ऐसे लोगों के लिए जरूर ज्यादा महत्वपूर्ण एवं बड़ी जीत है जो व्यवस्था परिवर्तन के बजाय इस पश्चिमी लोकतांत्रिक व्यवस्था में आस्था रखते हैं और यह मानते हैं कि इसमें सुधार करके इसे ‘फुलफ्रूफ’ बनाया जा सकता है, क्योंकि कहीं न कहीं इससे व्यवस्था परिवर्तन के तर्क एवं बहस कमजोर होते हैं। सरकार अब इस व्यवस्था के माध्यम से अपने ऊपर लग रहे गोपनीयता भंग के आरोप से भी बचा सकेगी क्योंकि फार्म 49 (ओ) भरने के दौरान मतदाता की गोपनीयता भंग होती थी। एक तरह से देखा जाए तो सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले से फार्म 49 (ओ) के प्रावधान को ही बैलेट पेपर पर या ईवीएम में स्थापित कर दिया है।
कुल मिलाकर, ‘राइट टू रिजेक्ट’ की मांग अपनी जगह यथावत आज भी बनी हुई है। यह मांग जिस दिन पूरी होगी भारतीय लोकतंत्र में गुणात्मक परिवर्तन का एक नया मार्ग खुलेगा। इसके माध्यम से व्यवस्था पर जनता का सीधा अंकुश संभव है। अतः वास्तविक ‘राइट टू रिजेक्ट’ के लिए संघर्ष किया जाना समय की जरूरत है।

साभार -दृष्टि विमर्श ओन लाईन विचार  पत्रिका 

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